कभी बस कुछ बातों से
कितनी गहराई नप जाती है
कैसे रात के कोहरे की चादर से निकलके
सर्दी की धूप खिल के आती है ।
गर्म चाय का धुआं
कितनी गर्माइश देता है
माँ के हाथ के खाने का स्वाद
कितनी यादें सेता है ।
कैसे रात के सन्नाटे में
कितना शोर है सपनों का
घर से फ़ोन के मैसेज की आहट में
कितना एहसास है अपनों का |
कब दिन आता है
कब ढल जाता है
इस आस पास की हलचल में
समय यूं निकल जाता है ।
हमेशा चक्रव्यूह से चलने वाले इस रूटीन में,
इसका हलके हलके गुज़रना महसूस करना
शाम की ढलती धूप के साथ
दूर से जाती ट्रैन की सीटी को सुनना ।
कभी गिनें हैं सारे लम्हे इस पहर के
कभी देखा है रुक के , ठहर के.....
ठहर के :)
कितनी गहराई नप जाती है
कैसे रात के कोहरे की चादर से निकलके
सर्दी की धूप खिल के आती है ।
गर्म चाय का धुआं
कितनी गर्माइश देता है
माँ के हाथ के खाने का स्वाद
कितनी यादें सेता है ।
कैसे रात के सन्नाटे में
कितना शोर है सपनों का
घर से फ़ोन के मैसेज की आहट में
कितना एहसास है अपनों का |
कब दिन आता है
कब ढल जाता है
इस आस पास की हलचल में
समय यूं निकल जाता है ।
हमेशा चक्रव्यूह से चलने वाले इस रूटीन में,
इसका हलके हलके गुज़रना महसूस करना
शाम की ढलती धूप के साथ
दूर से जाती ट्रैन की सीटी को सुनना ।
कभी गिनें हैं सारे लम्हे इस पहर के
कभी देखा है रुक के , ठहर के.....
ठहर के :)
No comments:
Post a Comment