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Wednesday, December 03, 2014

मेरी माँ ..

मैंने  कभी  शायद तुम्हे ऐसे  समझा नहीं
बस देखा और देख कर  सीख लिया
पर अब शायद कुछ कुछ समझती हूँ
जब कभी खुद को आईने में देखती हूँ ।

तुम  मेरे तरल आंसुओं की गहराई में हो
तुम मेरे मन की हर प्रार्थना की सच्चाई में हो ।
तुम मेरे गलत और सही की परिभाषा हो
तुम मेरी हर उड़ान को बल देने वाली आशा हो ।
तुम मेरे हर जीवन संघर्ष का सामर्थ्य हो
तुम मेरे हर छोटे बड़े सवाल के अर्थ में हो ।
तुम जैसा ही तो हंसती हूँ
और शायद तुम्हारे ही बहुत से विचारों को लिखती हूँ ।

तुमसे स्वाभिमान और  संघर्ष को जानना सीखा
हमेशा सच के साथ चलना और अपनी गलतियों को मानना सीखा ।

छोटी छोटी और बड़ी
हर बात में
तुम्हारी परछाई हूँ मैं ।
जिस आदर्श दुनिया की  कल्पना
तुमसे कई बार सुनी है मैंने
तुम्हारी ही तरह उसी को ढूंढने आई हूँ मैं ।

 मेरे सबसे निश्छल सुन्दर सपनों को
 तुम्हारे साथ बुना है मैंने ।
तुम्हारे साथ  बैठकर ही तो
सप्तऋषि के तारों को गिना है मैंने ।

तुमसे  शायद मैं कह नहीं पाती
या हर रोज़ की बातों में नहीं जताती ।
पर जीवन नहीं तुमने मुझे जीवन अर्थ दिया
तुम माँ हो केवल इसलिए नहीं, तुमने मुझे ज्ञान से कृतार्थ किया ।

मैं  शायद कभी तुम्हे समझा नहीं पाऊँ
और बचपन की तरह बस अपनी ही बातें तुम्हे बताऊँ ।
पर अनायास ही कभी जब खुद को समझने जाती हूँ
तो अपने मन और विचारों में तुम्हारी ही तो छाप पाती हूँ ।

बहुत शब्द हो गए शायद,
शायद मैं सुन्दर शब्द नहीं लायी ।
माँ, तुम मेरे अस्तित्व में हो
बहुत मान होगा खुद पर,
अगर मैं तुम जैसी माँ बन पायी ।

ठहर के ..

कभी  बस  कुछ  बातों  से
कितनी गहराई नप जाती है
कैसे रात के कोहरे की चादर से निकलके
सर्दी की धूप खिल के आती है ।

गर्म  चाय का धुआं
कितनी गर्माइश  देता है
माँ  के हाथ के खाने का  स्वाद
कितनी यादें सेता है ।

कैसे रात के सन्नाटे में
कितना शोर है सपनों का
घर से फ़ोन के मैसेज की आहट  में
कितना एहसास है अपनों का |

कब दिन  आता है
कब ढल जाता है
इस आस पास की हलचल में
समय यूं निकल जाता है ।

हमेशा चक्रव्यूह से चलने वाले इस रूटीन में,
इसका हलके हलके गुज़रना महसूस करना
शाम की ढलती धूप  के साथ
दूर से जाती ट्रैन की सीटी को सुनना ।

कभी गिनें हैं सारे लम्हे इस पहर के
कभी देखा है रुक के , ठहर के.....

ठहर के  :)